मेरी जुबान हिंदुस्तानी
जिंदा जुबान वक्त के मुताबिक शक्ल बदलती रहती है। अब न 50 साल पहले की उर्दू रही न हिंदी और अंग्रेजी। मैं कोई लैंग्वेज स्कॉलर नहीं हूं इसलिए सादा जुबान में बात कहता हूं, बोलचाल की भाषा में लिखता हूं। ये जुबान डेवलप करने में फिल्मों का भी अहम रोल रहा क्योंकि फिल्मों में इसी जुबान की जरूरत होती है। आप इसे कुछ भी नाम दें, मैं इसे हिंदुस्तानी जुबान कहता हूं।
अगले साल ‘अ पोएम अ डे’
इंडिया जैसी वास्ट कंट्री में हिंदुस्तानी अदब का दायरा केवल हिंदी-उर्दू साहित्य तक सीमित नहीं रखा जा सकता। इसलिए मैं बांग्ला, पंजाबी, उड़िया, मराठी, गुजराती, मलयालम, कन्नाड़, मराठी, तमिल तमाम भाषाओं का उम्दा साहित्य पढ़ता, सहेजता हूं। ये सिलसिला गुरु रवींद्रनाथ टैगोर की बांग्ला रचनाओं का अनुवाद पढ़ने से शुरू हुआ था। उनसे इतना प्रभावित हुआ कि ओरीजनल पोएट्री पढ़ने के लिए बांग्ला सीखी। मेरा वो बांग्ला प्रेम राखी के साथ तक जारी रहा। फिलहाल सबसे अच्छी पोएट्री नॉर्थ-ईस्ट में हो रही है। इसलिए मैं एक ऐसी किताब ‘अ पोएम अ डे” कंपाइल कर रहा हूं जिसमें 365 दूसरी भाषाओं से ट्रांसलेटेड पोएट्री होंगी। करीब 250 रचनाओं पर काम हो चुका है। 200 पर और करना बाकी है। फिर 450 में से 365 कविताएं अगले साल तक किताब की शक्ल इख्तियार कर लें
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