
जैसे किनारों से दिखने वाले पत्थरों के ऊपर से पानी निकलता है। जैसे बादलों के गरजने के बाद एक गूंज महसूस होती है। भारी भी। मीठी भी।…और उसके अलावा कानों तक कुछ और नहीं पहुंचने देने की ताकत भी। एकदम वैसी ही आवाज थी मेहदी हसन की। उनकी गजलों की। राजस्थान के झुंझुनूं से वे बचपन में ही चले गए थे और गायक पाकिस्तान में ही बने, फिर भी हिंदुस्तानियों ने उन्हें हमेशा हिंदुस्तानी गायक ही माना। इसकी एक वजह थी।
मेहदी भले ही पाकिस्तान में बसे हों, उनकी पुश्तों की कब्रें यहीं थीं। शेखावटी में। राजस्थान में। वो पीपल, वो छाया, वो मढ़ी, गढ़ी, सबकुछ यहां।…और वो मीठे कुएं भी, जो यहां छोड़ गए थे। अब तक थे भी। लेकिन अब मेहदी नहीं हैं, इसलिए वे कुएं भी औंधे हो गए। कहा जा सकता है, बंटवारे जैसे निपट राजनीतिक जुर्म किसी आवाज को नहीं दबा सकते। गायकी को तो बिल्कुल नहीं। जुर्म इसलिए कि गुलजार ने कहा है,
“लम्हों पर बैठी नज्मों को
तितली जाल में बंद कर देना
रेखाएं-सीमाएं खींच देना
जुर्म नहीं है तो और क्या है!”
हिंदुस्तान से रिश्ता जितनी शिद्दत से मेहदी हसन ने निभाया, कोई और नहीं निभा सकता। वे जब भी यहां आते…होंठों पर मुस्कराहट होती थी। आंखों में आंसू होते थे। लगता था, मुस्कराहट रो रही हो और आंसू मुस्करा रहे हों।…और हंसते-हंसते ये आंसू मेहदी हसन की तरफ से कह रहे हों कि सुबह का पहला पहर रोज मेरे हाथ में एक कुदाल सी पकड़ा देता है…और मैं इस कुदाल से अपने आपकी खुदाई करता रहता हूं। अपने वर्तमान को ढूंढने के लिए। जो बाहर होते हुए भी बाहर नहीं। शायद कहीं अंदर होगा। गुलजार ने संभवतः यह मेहदी हसन के लिए ही लिखा होगा,
“भड़क कर कहती है एक नाराज नज्म मुझसे,
मैं कब तक अपने गले में लूंगी तुम्हारी आवाज की खराशें”
बहरहाल, मेहदी हसन को उनकी पुण्यतिथि पर हम हिंदुस्तानियों की श्रद्धांजलि यही एक नज्म हो सकती है…
“तेरे उतारे हुए दिन टंगे हैं लॉन में अब तक।
न वो पुराने हुए हैं, न उनका रंग उतरा।
कहीं से कोई भी सीवन अभी नहीं उधड़ी।”
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