
भारत के बीचोबीच स्थित मध्यप्रदेश आदिवासी बहुल प्रदेश है। पश्चिम मप्र में झाबुआ से लेकर पूर्व में मंडला-डिंडौरी तक बड़ी संख्या में आदिवासी यहां रहते हैं। इन आदिवासियों की जीवनशैली शहरी लोगों को भी आकर्षित करती है। मप्र में एक ऐसी ही आदिवासी बस्ती है, जहां इंसान तो दूर, सूरज की किरणें भी बमुश्किल पहुंच पाती हैं। यह आदिवासी बस्ती धरती के गर्भ में 1700 फीट नीचे है। महज 12 साल पहले इस इंसानी बस्ती का पता चला था।
मप्र की राजधानी भोपाल से महज 300 किमी दूर एक ऐसी जगह के बारे में, जहां का जीवन आज भी शहरी लोगों के लिए रहस्य बना हुआ है। इस जगह को पातालकोट कहा जाता है। यह छिंदवाड़ा जिले में सतपुड़ा पर्वत श्रृंखला की तलहटी में बसा हुआ है।
धरती के गर्भ में 1700 फीट नीचे, तीन तरफ से पहाड़ों से घिरी एक ऐसी दुनिया है, जहां पहुंचना बेहद मुश्किल है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, रावण के सबसे बड़े बेटे मेघनाद शिव की पूजा कर इसी स्थान से पाताल में गया था।
इस पातालकोट के 12 गांवों में भारिया और गाेंड आदिवासी रहते हैं। यहां रह रहे लोग महादेव को अपना इष्टदेव मानते हैं। पातालकोट के दो-तीन गांव तो ऐसे हैं, जहां आज भी कोई नहीं जा सकता। जमीन से एक हजार फीट से ज्यादा नीचे होने के कारण कई गांव में दोपहर के वक्त उजाला होता है, जब सूरज सीधे सर के ऊपर होता है। माना यह भी जाता है कि कुछ गांवों में कभी सवेरा नहीं होता, क्योंकि वहां तक सूरज की रोशनी नहीं पहुंचती है। भारिया और गोंड आदिवासी इस जगह महुआ और बलहर की खेती करते हैं। जंगल में पैदा होने वाले फल और कोदो-कुटकी इनका मुख्य भोजन होता है।
पातालकोट में जमीन से 1 हजार से 1700 फीट नीचे इंसानी बस्ती है। बताया जाता है कि 12 साल पहले ही यहां इंसानी बस्ती का पता लगा था। मानसून में यहां सतपुड़ा की पहाड़ियां बादलों से ढंकी होती है, इस दौरान कई लोग यहां पर्यटन के लिए आते हैं। पातालकोट में जाने के लिए सरकार से अनुमति लेनी होती है। बताया जाता है कि इस जगह पर करीब 20 गांव थे, लेकिन प्राकृतिक आपदा के कारण 12 गांव ही बचे हैं।
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