
ऐसा क्यों हैं कि आम लोगों के मुद्दों को उठाने वाली ये कला उन्हीं से दूर हो रही है?
थिएटर के सामने एक बड़ी चुनौती है, कि उसका नाटकीय रूप इतना ज़बरदस्त हो कि वो टीवी, सिनेमा से बिल्कुल अलग अपनी कला को लोगों के सामने परोसे.
साथ ही नाट्यकर्मियों की भी ज़रूरत है. जब दिल्ली में नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा की शुरुआत हुई थी, उसके बाद से मनोरंजन का स्तर बहुत बदल गया है और उसी के मुताबिक़ ट्रेनिंग की ज़रूरत है.हमने केन्द्र सरकार से दरख़्वास्त की है कि हर राज्य में और हर भाषा में नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा जैसे प्रशिक्षण संस्थान खुलने ज़रूरी हैं.पर उच्च स्तरीय शिक्षा ही क्यों, विदेश में स्कूल और कॉलेजों में नाटक का प्रशिक्षण सामाजिक विकास की दृष्टि से दिया जाता है, भारत में क्या बच्चों और युवाओं के साथ नाट्य कला में पर्याप्त काम किया जा रहा है?
नहीं, मुझे ऐसा बिल्कुल नहीं लगता. हम बार-बार ये मांग कर रहे हैं कि ख़ास तौर पर स्कूलों में नाट्य प्रशिक्षण देना अनिवार्य किया जाना चाहिए.
जिन देशों में इसे संजीदगी से किया गया, वहां के युवा वर्ग की सामाजिक सरोकारों की ओर सजगता ज़्यादा है. उनके बहुत सशक्त, गहराई से सोचनेवाले और संवेदनशील नागरिक बनने की संभावना भी ज़्यादा है.कई लोगों का मानना है कि वर्तमान दौर में अच्छे और गहरे स्तर के नए नाटकों का गहरा अभाव है, विजय तेंदुल्कर और ब्रेख़्त जैसे नाटककारों के बाद अब सतही और उथले नाटक देखने को मिल रहे हैं, क्या आप इसे भी प्रशिक्षण की कमी मानेंगे?
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