भारत केवल एक राष्ट्र नहीं, वरन एक सभ्यता है, संस्कृति है, जिसकी जड़ें हजारों साल पुरानी हैं | आज राष्ट्र पुनर्जागरण के दौर में लोग मई दिवस को भूलकर विश्वकर्मा दिवस मनाने लगे हैं, यह इसी बात का प्रमाण है, अपनी विरासत के प्रति गर्व की भावना का प्रगटीकरण है | नारद जयन्ती भी इसका ही एक रूप है | कानपुर के साम्प्रदायिक दंगे में मारे गए गणेश शंकर विद्यार्थी हों, अथवा बापूराव पराड़कर, हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे कालजयी पत्रकार, इनके शब्दों की वाणी तब भी सुनाई पड़ती थी, आज भी गूंजती है |
आज दिनांक 15 जून रविवार को स्थानीय शहीद भवन में विश्व संवाद केंद्र तथा हिन्दुस्थान समाचार द्वारा आयोजित नारद जयन्ती कार्यक्रम में “सामाजिक चेतना में मीडिया की भूमिका” विषय पर मुख्य वक्ता के रूप में बोलते हुए भारतीय नीति प्रतिष्ठान के मानद निदेशक तथा जाने माने लेखक, चिन्तक व दिल्ली विश्व विद्यालय में राजनीति शास्त्र के प्राध्यापक श्री राकेश सिन्हा ने उक्त विचार व्यक्त किये |
अंग्रेजों के शासनकाल में विदेशी पूंजी की मदद से अच्छे कागज़ पर छपने वाले टाईम्स ऑफ़ इंडिया अथवा स्टेट्समेन जैसे समाचार पत्रों की तुलना में 1887 से 1910 तक चले हिन्दी प्रदीप को 23 वर्षों में 10 प्रेस बदलनी पडीं |
इलाहाबाद से छपने वाले स्वराज्य अखबार के 9 संपादकों को सश्रम कारावास की सजा हुई | अखबार ने एक विज्ञापन दिया – सम्पादक की आवश्यकता है | पारिश्रमिक दो सूखी रोटी, एक गिलास पानी | प्रत्येक सम्पादकीय के लिए 10 वर्ष कारावास का पुरस्कार | और अचम्भा देखिये कि सम्पादक बनने के लिए कतार लग गई | इन्हीं अखबारों ने साम्राज्यवाद को चुनौती दी | यही है भारतीय पत्रकारिता की उज्वल विरासत |
येन केन प्रकारेण पूंजी इकट्ठा कर समाचार पत्र निकालने वालों से सामाजिक चेतना की अपेक्षा नहीं की जा सकती | एक समाचार पत्र ने 250 कंपनियों से समझौता किया है | उसके 7 से 10 प्रतिशत शेयर इन कंपनियों ने लिए हैं, ताकि उन कंपनियों के काले कारनामे अखबार में न छपें | प. मदन मोहन मालवीय जी के लीडर और अभ्युदय, लोकमान्य तिलक के केसरी, गांधी जी के हरिजन तथा नेहरू जी के नेशनल हेराल्ड ने जिन सामाजिक सरोकारों को लेकर समाचार पत्र निकाले, उनकी तुलना में आज के समाचार पत्र कहाँ टिकते हैं ? आज अखबारों में सम्पादक नहीं, मालिक के लिये रेलवे टिकिट से लेकर राज्यसभा टिकिट तक की व्यवस्था करने वाले नियुक्त होते हैं |
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