
विवादित फिल्मों के साथ एक समस्या जुड़ जाती है। आम दर्शक भी इसे देखते समय उन विवादित पहलुओं पर गौर करता है। फिल्म में उनके आने का इंतजार करता है। ऐसे में फिल्म का मर्म छूट जाता है। ‘उड़ता पंजाब’ और सीबीएफसी के बीच चले विवाद में पंजाब, गालियां, ड्रग्स और अश्लीलता का इतना उल्लेख हुआ है कि पर्दे पर उन दृश्यों को देखते और सुनते समय दर्शक भी जज बन जाता है और विवादों पर अपनी राय कायम करता है। फिल्म के रसास्वादन में इससे फर्क पड़ता है। ‘उड़ता पंजाब’ के साथ यह समस्या बनी रहेगी।
‘उड़ता पंजाब’ मुद्दों से सीधे टकराती और उन्हें सामयिक परिप्रेक्ष्य में रखती है। फिल्म की शुरुआत में ही पाकिस्तानी सीमा से किसी खिलाड़ी के हाथों से फेंका गया डिस्क नुमा पैकेट जब भारत में जमीन पर गिरने से पहले पर्दे पर रुकता है और उस पर फिल्म का टायटल उभरता है तो हम एकबारगी पंजाब पहुंच जाते हैं। फिल्म के टायटल में ऐसी कल्पनाशीलता और प्रभाव दुर्लभ है। यह फिल्म अभिषेक चौबे और संदीप शर्मा के गहरे कंसर्न और लंबे रिसर्च का परिणाम है।
अच्छी बात है कि ‘उड़ता पंजाब’ में ड्रग्स और नशे को बढ़ावा देने वाले दृश्य नहीं है। डर था कि फिल्म में उसे रोमांटिसाइज न कर दिया गया हो। फिल्म के हर किरदार की व्यथा ड्रग्स के कुप्रभाव के प्रति सचेत करती है। महामारी की तरह फैल चुके नशे के कारोबार में राजनीतिज्ञों, सरकारी महकमों, पुलिस और समाज के आला नागरिकों की मिलीभगत और नासमझी को फिल्म बखूबी रेखांकित और उजागर करती है।
गीत-संगीत ‘उड़ता पंजाब’ का खास चमकदार और उल्लेखनीय पहलू है। अमित त्रिवेदी ने फिल्म की कथाभूमि के अनुरूप संगीत संजोया है।
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